बचपन में याद है हमारे मम्मी पापा हमसे अक्सर कहा करते थे इतना टीवी मत देखो आंखें खराब हो जाएंगी, चश्मे लग जाएंगे और अफसोस आज के दिन की सच्चाई पता किया है। आज के दिन करोड़ों बच्चों को चश्मे लग रहे है, अगर आपकी दूर की नजर कमजोर है इसका मतलब है कि आपको नियरसाइटनेस है। साइंटिफिक भाषा में इसे मायोपिया कहा जाता है और इसको लेकर जो डाटा है वो बहुत ही शॉकिंग है।
इंडिया में 5 से 15 साल के बच्चों के एज ग्रुप की अगर हम बात करें तो मायोपिया का रेट आज से 20 साल पहले (1999) 4 5% पर हुआ करता था, आज यही नंबर 21% (Year 2019) क्रॉस कर गया है यानी कि देश में रहने वाले हर पांच में से एक बच्चे को चश्मा लगा हैं। आज के दिन हालत ये हो चुकी है कि मायोपिया को एक एपिडेमिक कंसीडर किया जाता है और प्रेडिक्शन करी गई है कि साल 2050 तक दुनिया में रहने वाले हर दूसरे इंसान को चश्मे लगेंगे। यानी 50% लोगो को मायोपिया होणे कि संभावना है।
यह सब आखिर क्यों हो रहा है?? अगर आपको ऑलरेडी चश्मे लग चुके हैं, तो क्या आप अपनी आंखों को नेचुरल तरीके से वापस ठीक कर सकते हो?? और अगर आपको चश्मे नहीं लगे हैं तो स्मार्टफोन की दुनिया में कैसे आप अपनीआंखों को बचा सकते हो?? क्या असली कारण होते हैं मायोपिया के पीछे?? तो चलो सभी सवालों के जवाब जानते हैं…।
हुए इस पूरे मुद्दे को गहराई से समझने के लिए पहले हमें समझना होगा दोस्तों कि इंसानों की आंखें काम कैसे करती हैं? उपर दीई आंख का डायग्राम है। एक ह्यूमन आई बेसिकली एक कॉन्वेक्स लेंस की तरह काम करती है। आपने स्कूल में कॉन्वेक्स लेंस के बारे में तो पढ़ा ही होगा.ये वो लेंसेस पॉइंट है जो आने वाले सारी लाइटको इकट्ठी करके कोन्वर्ज करती है. नॉर्मल इंसान की आंख में जो ये फोकल पॉइंट होता है, ये आंख का बैक वाला हिस्सा होता है, जिसे रेटिना कहा जाता है।
अगर आपकी आंखें सही तरीके से काम कर रही हैं तो जो भी लाइट आपकी आंखों के अंदर आती है वह सबसे पहले कॉर्निया पर लगती है, जो आउटर मोस्ट लेयर है, फिर प्यूपल के मदतसे वो एक लेंससे गुजरती है। इसी रेटिना से एक ऑप्टिक नर्व कनेक्टेड होती है, जो हमारे ब्रेन तक सिग्नल्स पहुंचाती है जिसकी मदद से हम एक्चुअली में देख सकते हैं।
अब एक इंटरेस्टिंग फैक्ट यहां पर ये है कि आपको लगेगा कि लाइट रेज (Light rays) को मोडके करने का काम हमारे आंखों के अंदर मौजूद ये लेंस कर रही है। लेकिन लेंस से भी ज्यादा काम हमारा कॉर्निया कर रहा है। एक्चुअली में करीब 70% लाइट की बेंडिंग जो हमारी आंखों में होती है, वो कॉर्निया करता है। उसके बाद जो लेंस आती है, वो बस थोड़ी बहुत फाइन ट्यूनिंग करती है। तो इसका मतलब ये हुआ कि अगर आपकी आंखें ठीक से काम नहीं कर रही हैं, तो आपकी कॉर्निया की शेप बदल चुकी है।
इनफैक्ट जब लोगों को मायोपिया या हाइपरोपिया होता है, तो उनकी आईबॉल की शेप ही बदल जाती है। मायोपिया में जो आईबॉल होती है, वो ज्यादा खींच जाती है। जिसकी वजह से जो फोकल पॉइंट होता है, वो रेटिना पर नहीं नहीं होता बल्कि रेटिना से पहले होता है। अगर आपकी पास की नजर कमजोर है, तो इसका मतलब आपको हाइपरोपिया है। इसमें आपकी आंख पिचक सी जाती है, जो पास की चीजें हैं वो ब्लरी दिखाई देती हैं। इंसानों में आमतौर पर सभी न्यूबॉर्न बेबीज की जो आंखें होती हैं, वो ऑलरेडी पिचकी हुई होती है, ये हाइपरोपिया वाली आंखें होती हैं। तो न्यूबॉर्न बच्चे, एक-दो सालके बच्चे जो होते हैं, वो पास की चीजें अच्छे से देख नहीं पाते। लेकिन धीरे-धीरे जैसे बच्चा बड़ा होता है, तो आइबॉल्स सही साइज की बन जाती है. इस प्रोसेस को पूरा होने में करीब दो साल का समय लगता है। तो 2 साल की एज के बाद बच्चों को नॉर्मल दिखना शुरू हो जाता है।
जब आप दूर की चीजें देखते हो तो सिलरी मसल्स रिलैक्स्ड हो जाती हैं। जैसे ही आप जितना ज्यादा पास देखना चाहते रहे, सिलरी मसल्स स्ट्रेसमें आ जाती है। क्योंकि सिलरी मसल्स कॉन्ट्रैक्ट करती हैं, पास की चीजें देखने के लिए सिलरी मसल्स के कंट्रक्शन से लेंस की शेप बदल जाती है. सवाल ये आता है कि लोगों को मायोपिया होता ही क्यों है?? कुछ लोगों की आईबॉल की शेप क्यों बडी हो जाती है?? और कुछ लोगों की नहीं होती?? यहां पर तीन अलग-अलग थ्योरी हैं।
1. नियरवर्क थेरी
कुछ साइंटिस्टने कहा कि जितना ज्यादा समय हम पास की चीजों को देखने में बिताएंगे उतना ही ज्यादा हमारी आंखों पर स्ट्रेस पड़ेगा, उतना ही ज्यादा हमारी सिलरी मसल्स को काम करना पड़ेगा और उतनी ही ज्यादा देर तक हमारी आईबॉल ज्यादा गोल बनकर रहेगी जितना समय आप फोन के स्क्रीन को देखते हुए या लैपटॉप के स्क्रीन को देखते हुए या किताबें पढ़ने के लिये बिताओगे उतना आपके आंखों पर ज्यादा स्ट्रेस पडेगा।
2. डीएनए थ्योरी
इस थ्योरीके मुताबिक अगर आपके फैमिली में किसीको देखणे में तकलीफ हो रही है तो, और इससे सबको चश्मे लगे हैं तो आपको भी चश्मे लगेंगे ही चाहे आप कुछ भी कर लो। ये डीएनए थ्योरी साल 1970 तक आते-आते फेल होने लगी क्योंकि 1969 में एक बड़ी इंटरेस्टिंग स्टडी करी गई। अलास्का में रहने वाले आदिवासी लोगों पर वहां यह पाया गया कि अलास्का में रहने वाले जो मिडिल एज्ड और बुजुर्ग लोग थे उनमें तो कभी मायोपिया नहीं देखने को मिला। लेकिन बच्चों में और टीनएजर्स में मायोपिया के रेट्स 50 पर से ज्यादा थे। एक ही जनरेशन के अंदर इतना बड़ा बदलाव आना ये जेनेटिक्ससे आनेवाले थ्योरीको गलत साबित कर दिया।
1970 से ये नियरवर्क थ्योरी सबसे पॉपुलर थ्योरी बनने लगी। साइंटिस्ट के बीच में ऐसा देखा जाने लगा कि जितने ज्यादा पढ़ाकू लोग हैं, उतने ही ज्यादा चश्मे उन लोग लोगों में देखने को मिलते हैं। हिस्टॉरिकली ब्रिटिश डॉक्टर्स ने इस चीज को ऑब्जर्व किया था कि ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाले जो स्टूडेंट्स थे, उनमें कहीं ज्यादा मायोपिया के केसेस देखने को मिल रहे हैं एज कंपेयर्ड टू मिलिट्री या आर्मी में जो लोग भर्ती थे।
कैसे बच सकते है इस बिमारी से ??
कैलिफोर्निया में रहने वाले बच्चों पर 2007 में एक बहुत बड़ी स्टडी करी गई थी। इसमे ये पाया कि एक्चुअली में बच्चे जब बाहर रहते हैं या आउटडोर्स में रहते हैं, उनको मायोपिया होने का रिस्क बहुत कम हो जाता है। 2008 में सिडनी में एक स्टडी करी गई, 4000 से ज्यादा बच्चों पर आठ सालों तक इस स्टडी में बच्चों को ऑब्जर्व किया गया। देखे गए कि वो कितना बाहर खेल रहे हैं? बाहर क्या कर रहे हैं? अंदर है कितना नियर वर्क कर रहे हैं? और सेम कंक्लूजन रीच हुआ।
इस थ्योरी के अनुसार बच्चों को नियर वर्क से मायोपिया नहीं हो रहा है, बल्कि मायोपिया इसलिए हो रहा है क्योंकि वो बाहर आउटडोर्स में कम समय बिता रहे हैं। बच्चो को कम से कम जादा रोशनीवाले ओब्जेक्ट्स यानी टीव्ही, मोबाईल, व्हिडीओ, गेम्स से दूर रहकर बाहर आउटडोर्स में जाकर डेलाइट(Day Light) का जो एक्सपोजर है, उससे आपकामायोपिया होणे का रिक्स आधा कर देता है।
ताइवान में जब उनकी सरकार ने एक प्रोग्राम शुरू किया- आउटडोर 120. इस प्रोग्राम के तहत स्कूलों को कहा गया कि ये इंश्योर करो कि बच्चे कम से कम 2 घंटे बाहर बिताएं और इस प्रोग्राम के इंप्लीमेंट होने के कुछ ही सालों बाद एक बड़ा पॉजिटिव इंपैक्ट देखने को मिला। 2012 में ताइवान में इन बच्चोंमें मायोपिया के रेट्स 49.4 थे। और 2015 तक मायोपिया के रेट्स गिरकर 46.1 हो चुके थे। यानी हर दिन बच्चों ने सिर्फ दो घंटे बाहर समय बिताया और इसी से ही चश्मे लगने कम हो गए।