भारतीय राजनीति में श्री लाल प्रसाद यादव, श्री नीतीश कुमार, श्री मुलायम सिंह यादव या श्री रामविलास पासवान को आपने किस तरह के नेता के तोर पर देखा है। शायद एक ऐसे नेता जिनका ताल्लुक ना सिर्फ गैर राजनीतिक पृष्ठभूमि से था बल्कि यह बेहद सामान्य परिवार से भी आते हैं. क्या आप जानते हैं की भारतीय राजनीतिमें इन सितारों को इतनी प्रसिद्धी क्यों मिली?? में सिर्फ गैर राजनीतिक पृष्ठभूमि और सामान्य परिवार से होना ही इनमें आम नहीं था।
बल्कि एक और बात थी जो इन सब में एक जैसी थी और वो ये की 1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा लगे जान वाली नेशनल इमरजेंसी से इन सभी को अलग पहचान मिली थी। नेशनल इमरजेंसी यानी राष्ट्रीय आपातकाल इस दौरान इन नेताओं ने खुद को इतना तराशा की सत्ता इन नेताओं के कदम चुमन लगी। आपातकाल के बाद राष्ट्रीय राजनीति की दिशा कैसे बदली इमरजेंसी की चर्चा करते हैं जिससे उन दिग्गज नेताओं का उदय हुआ।
कैसे केवल एक व्यक्ति ने इंदिरा गांधी को आपातकाल लगाने पर मजबूर कर दिया?? किस व्यक्ति ने श्रीमती गांधी को सलाह देते हुए कहा था की देश को बेशक ट्रीटमेंट की जरूर है?? इमरजेंसी वाली रात को अखबारों के दफ्तर के लाइट क्यों कैट दी गई??
अगर इंदिरा गांधी की बात करें तो उनको तब भी और आज भी भारतीय राजनीतिक इतिहास की सबसे सख्त प्रशासकों में से एक माना जाता है। लेकिन किसी को इस बात की उम्मीद नहीं थी की एक महिला प्रधानमंत्री रातों रात ऐसा ऐलान कर देगी?? जिससे आजादी के बाद देश के इतिहास में काले दिन के तोर पर याद किया जाएगा। देश में इमरजेंसी की नौबत कोई एक-दो महीने या एक दो साल में नहीं आई, इमरजेंसी इतनी छोटी चीज है भी नहीं जिसकी पृष्ठभूमि कुछ एक दोनों में तैयार हो जाए।
ऊसकी पृष्ठभूमि कई सालों से तैयार हो रही थी इंदिरा गांधी की सत्ता सालों से एक के बाद एक कई समस्याओं से घिरती जा रही थी, अपनी सत्ता की ठसक को बरकरार रखना के लिए इंदिरा गांधी लोकतंत्र की वह शिकारी बन गई जिसके तरकश में आखरी तीर के तोर पर सिर्फ इमरजेंसी ही बच्ची थी। इंदिरा एक तरफ न्यायपालिका से टक्कर ले रही थी तो दूसरी तरफ राजनीतिक विरोधी हर मोर्चे पर उनकी सरकार को चुनौती पेस कर रहे थे। 1966 में इंदिरा गांधी ने सत्ता संभाली और अगले ही साल न्यायपालिका से उनका टकराव शुरू हो गया. 27 फरवरी 1967 को गोलकनाथ मामले में आए सुप्रीम कोर्ट के फैसला ने बड़ी पृष्ठभूमि तैयार करती है के जस्टिस सबा राव के नेतृत्व वाली एक खंडपीठ ने छह बनाम पांच जजों के बहुमत से फैसला दिया की सांसद में दो तिहाई बहुमत के बावजूद किसी संविधान संशोधन के जारी मूलभूत अधिकारों के प्रावधान को ना खत्म किया जा सकता है और ना ही सीमित किया जा सकता है। नागरिकों के मौलिक अधिकार कैसे इंदिरा गांधी के निशाने पर थे?? यह तब महसूस हुआ जब आपातकाल के दौरान अनुच्छेद 21 तक को निलंबित कर दिया गया.
इंदिरा गांधी संविधान के मूल ढांचे में बदलाव के जुगाड़ में हमेशा लगी रहे लेकिन सुप्रीम कोर्ट इसके खिलाफ अडा हुआ था। 1973 में केशवानंद भारती मामले में सुप्रीम कोर्ट ने साफ कर दिया की संविधान की कुछ मूलभूत चीज हैं जिन्हें बदला नहीं जा सकता। 1973 में इंदिरा सरकार ने तीन वरिष्ठ जजों को दरकिनार करके श्री ए एन रे को जस्टिस बना दिया। इस फैसला को राजनीति से प्रेरित माना गया क्योंकि जिन तीन जजों को बाईपास किया गया था वे सरकार के खिलाफ फैसला दे चुके थे। सुप्रीम कोर्ट की परंपरा के इतिहास में यह बहुत बड़ी घटना थी न्यायपालिका से टकराव का अंतिम और बड़ा मामला 1975 के जून में सामने आया और ये इस बात कल के लिए एक टर्निंग पॉइंट साबित हुआ।
दरअसल तत्कालीन सरकार के गठन के लिए 1971 में जो लोकसभा का चुनाव हुआ था। उसमें रायबरेली सीट से इंदिरा गांधी चुनकर आई थी, उसे चुनाव से संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के राज नारायण सिंहने इंदिरा के खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट में दलील थी की इंदिरा गांधी ने चुनाव में सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग किया, सीमा से अधिक पैसे खर्च किया और मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए गलत त्रिकोण का इस्तेमाल किया। देश में आपातकाल की जडे 1971 के आम चुनाव के बाद से ही रख दी गई। लेकिन 1975 आते-आते इमारत बुलंद हो चुकी थी 12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला आया और उसने सत्ता के गलियारे में हलचल पैदा कर दी। कोर्ट ने इंदिरा को दोषी करार दिया और उनकी जीत को रेड कर दिया।
कोर्ट माना की इंदिरा ने सरकारी मशीनरी के बलबूते चुनाव में जीत हासिल की थी. जिन सात मुद्दों पर कोर्ट ने सुनवाई की थी उनमें से पांच में इंदिरा को राहत मिली लेकिन दो मुद्दों पर वो गिर गए इसमें ये बात सामने आई की इंदिरा गांधी ने अपने ओएसडी यानी ऑफिसर ऑन स्पेशल ड्यूटी यशपाल कपूर का चुनाव प्रचार में गलत तरीके से इस्तेमाल किया था. कपूरको फरवरी 1971 को इंदिरा गांधी के इलेक्शन एजेंट बनाए गए। लेकिन उन्होंने पहले से ही चुनाव प्रचार करना शुरू कर दिया था, दूसरा आरोप ये साबित हुआ की उन्होंने चुनाव प्रचार के लिए सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल किया। कोर्ट ने पाया की सरकारी खर्च पर इंदिरा के लिए मंच शामियाने लाउड स्पीकर आदि लगाएं गए। लिहाजा श्रीमती गांधी पर छह साल तक चुनाव लड़ने पर पाबंदी लगा दी और उनके सर प्रतिबंध भी राज नारायण को चुनाव में विजई घोषित कर दिया।
लेकिन कुर्सी का मोह ऐसा था की श्रीमती गांधी ने इस्तीफा देने से इनकार कर दिया। हालांकि श्रीमती इंदिरा गांधी के निजी सचिव रहे आर के धवन इसके पीछे कुछ और ही वजह बताते हैं, उनके मुताबिक अदालत का फैसला आने के बाद इंदिरा इस्तीफा देने के लिए तैयार थी, इसके लिए उन्होंने इस्तीफा पत्र टाइप भी कर लिया था मगर उसे पर कभी उन्होंने दस्तखत नहीं किया।
इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसला को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती जरूर थी आपातकाल लगनेसे एक दिन पहले यानी 24 जून 1975 को इंदिराकी सुप्रीम कोर्ट में फैसला आया की जब तक मामला कोर्ट में पर चलेगा तब तक इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री पद पर बनी रह सकती है, लेकीन शक्तियों का इस्तेमाल नहीं कर सकती थी। सुप्रीम कोर्ट से नव उम्मीद ही हाथ लगने के बाद इंदिरा अपनी सत्ता के जाने का डर सताने लगा। इंदिरा एक तरफ न्यायपालिका से टक्कर ले रही थी तो उसके समानांतर राजनीतिक विरोधी उनकी सत्ता को हिलाने की कवायद में लगे हुए थे.
एक और महंगाई आसमान छु रही थी, तो दूसरी तरफ इंदिरा गांधी सत्ता के खिलाफ लोगों में गुस्सा पापड़ा रहा था। इसके चलते अलग-अलग राज्यों में सरकार विरोधी प्रदर्शन आज की तरफ फेल रहे थे। उस वक्त जयप्रकाश नारायण ने सत्ता के खिलाफ आवाज उठाने का फैसला किया। जीपी ने इंदिरा गांधी को पत्र लिखा और उनके कई फसलों को लोकतंत्र के लिए खतरनाक बताया। आपातकाल तो 25 जून 1975 को लगा लेकिन जीपी 1974 से ही इंदिरा के खिलाफ सक्रिय थे।
गुजरात में बढ़नी महंगाई के चलते पहले से ही सरकार विरोधी आंदोलन हो रहे थे। दिसंबर 1973 में अहमदाबाद के इंजीनियरिंग कॉलेज में फीस भरने के खिलाफ छात्र आक्रमक हुये। वे चमन भाई पटेल की सरकार को बर्खास्त करने की मांग कर रहे थे। ऐसा आंदोलन को नवनिर्माण आंदोलन नाम दिया गया। देखते देखते मजदूर और सिविल सोसाइटी के लोग भी आंदोलन से जुड़ने लगे। आंदोलन को धार देने के लिए गुजरात में जीपी को आमंत्रित किया गया पुलिसिया लाठी चार्ज में अब तक कई आंदोलनकारी मारे जा चुके थे। इंदिरा चाहती थी की भले ही चमन भाई पटेल इस्तीफा दे दें ,लेकिन किसी भी तरह सत्ता की कमान कांग्रेस के पास रहे। इसलिए आनंद फाइनेंस में 9 फरवरी 1974 को जयप्रकाश नारायण के गुजरात आने से दो दिन पहले चमन भाई से इस्तीफा दिवा दिया गया और गुजरात में राष्ट्रपति शासन लागू हो गया।
आंदोलनकारी इतने पर भी नहीं शांत बैठे, मोरारजी देसाई और जीपी चुनाव करवाने की मांग करने लगे। इतिहासकार विपिन चंद्र अपनी किताब में इंडिया अफ्टर इंडिपेंडेंस में लिखने हैं गुजरात नाटक का आखिरी अभिनय मार्च 1975 में किया गया। जब मोरारजी देसाई के लगातार आंदोलन और अंग्षण का सामना करते हुए इंदिरा गांधी ने विधानसभा भंग कर दी और जून में नए चुनाव की घोषणा कर दी। एक तरफ बिहार और गुजरात आंदोलन में चल रहे थे और दूसरी तरफ समाजवादी नेता जॉर्ज फर्नांडिस के नेतृत्व में रेलवे के लाखों कर्मचारी हड़ताल पर चले गए। 1974 में 3 सप्ताह तक चली हड़ताल ने माल और लोगों की आवाज आई को थप कर दिया ऐसे में इंदिरा समझ नहीं का रही थी की आखिर पहले किस निपटा जाए।
एक तरफ इंदिरा गांधी का न्यायपालिका के साथ टकराव की एक लंबी फेरिस और दूसरी तरफ महंगाई और भ्रष्टाचार का मुद्दा सरकार पीछा नहीं छोड़ रही। बिहार और गुजरात समेत अलग-अलग हसन में पहले से ही सरकार के खिलाफ एक गुस्सा है, मार्च 1975 में गुजरात के कांग्रेस सरकार कम पीछे खींच चुकी थी और विधानसभा भी भंग हो चुकी थी। इन तमाम परिस्थितियों के अलावा 25 जून से एक पखवाड़े पहले ही इमरजेंसी के लक्षण प्रकट होने लगे थे। 12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसला के बाद इंदिरा की संसदीय चली गई। 25 जून को दिल्ली के रामलीला मैदान में जो हुआ उसने कई सालों से जमा हुई बारूद की देर में तीली का काम किया 25 जून को जय प्रकाश नारायण ने नई दिल्ली के रामलीला मैदान में सरकार के खिलाफ बड़ी रैली बुलाई। पूरे देश में घूम-घूम कर सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करने वाले जीपी अब प्रधानमंत्री आवास एक सफदरजंग से कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर हुंकार भर रहे थे। जीपी सी और पुलिस से सरकार के आदेश ना माने की अपील कर रहे हैं।
उसे दिन रामलीला मैदान का नजर देखने लायक था लाखों की तादाद में भीड़ जीपी को सुनने आई थी। उसे जगह एक साथ इतने लोग पहले कभी नहीं छूट थे यही वो जगह थी जब जीपी ने बुलंद आवाज में राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की मशहूर पंक्तियां पड़ी सिंहासन खाली करो की जनता आई है। इसमे इंदिरा को इमरजेंसी के अलावा दूसरा रास्ता न दिखा।
हालांकि 25 जून को भी इंदिरा नहीं कर पाई थी की देश में नेशनल इमरजेंसी लगे जाए। यह तय करने के लिए उन्होंने 25 जून की सुबह बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रायको फोन किया। इंदिरा सिद्धार्थ पर कितना भरोसा करती थी इसका अंदाज़ इस बात से भी लगाया जा सकता है की उन्होंने अब तक अपने कानून मंत्री गोखले से कोई चर्चा नहीं की थी, इसलिए श्रीमती गांधी उनकी राय जानना चाहती थी। देश बड़ी मुसीबत में फंसने वाला है, सब तरफ अव्यवस्था फैली हुई है। विपक्ष सिर्फ आंदोलन पर उतारू है, इस तरह तो विपक्ष की मांगों का कोई अंत नहीं है। देश में कानून का राज नहीं रह चुका था। इस समय कोई बड़ा कदम उठाने की सख्त जरूर है। इंदिरा को ऐसा महसूस हुआ की जीपी की योजना पूरे देश में विरोध प्रदर्शन की अपील कर एक समानांतर प्रशासन चलने की है। उन्हें लगता था की जीपी, कोर्ट, पुलिस, प्रशासन और सरकार का बहिष्कार करने के लिए लोगों को राजी कर लेंगे।
कैथरीन फ्रैंक अपनी किताब इंदिरा दी लाइफ ऑफ इंदिरा नेहरू गांधी ने जिक्र करती हैं की इंदिरा गांधी 1974 से ही जयप्रकाश नारायण पर यह आरोप लगाती रही थी की उनके पीछे अमेरिका की खुफिया एजेंसी सिया का हाथ है, वो उनको फाइनेंस भी कर रहे हैं। अगर इतिहास के पन्नों को पलटेंगे तो इंदिरा का अमेरिका को लेकर यह डर बेवजह नहीं था 1971 में भारत पाक युद्ध से एक महीने पहले यानी नवंबर में इंदिरा गांधी अमेरिका डर पर गई उनकी यात्रा का मकसद था की वह अमेरिका को इस बात पर राजी कर लेने की वो पाकिस्तान को हथियार ना भेजें मगर प्रेसिडेंट ने ऐसा करने से इनकार कर दिया।
इसके बाद सिद्धार्थ शंकर ने इंदिरा को सलाह दी की राष्ट्रीय आपातकाल एकमात्र उपाय है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत देश में राष्ट्रीय आपातकाल लगाने की रैली उन्होंने इंदिरा को समझाया की बाहरी और आंतरिक अव्यवस्था के समय संविधान इमरजेंसी लगाने की छठ देता है। दिसंबर में 1971 से ही भारत-पाकिस्तान युद्ध के चलते देश में आपातकाल लगा हुआ था। जो तब तक जारी था ऐसे में उदाहरण देते हुए इंदिरा को समझाया की कैसे युद्ध एक देश के लिए बाहरी खतरा है और जो देश के अंदर परिस्थितियों हैं वो एक आंतरिक खतरा है।
25 जून से करीब 6 महीने पहले ही बन चुके थे इमरजेंसी के जांच के लिए जनता पार्टी की सरकार द्वारा गठित शाह कमीशन के सामने इंदिरा के खासमखास आर के धवन ने बताया की आठ जनवरी 1975 को सिद्धार्थ शंकर राय ने ही इंदिरा को एक चिट्ठी में आपातकाल की पुरी योजना भेजी थी। चिट्ठी के मुताबिक यह योजना तत्कालीन कानून मंत्री गोखले, कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ और मुंबई कांग्रेस के अध्यक्ष रजनी पटेल के साथ उनकी बैठक में बनी थी।
राष्ट्रीय आपातकाल के बड़े में संविधान क्या कहता है उसको भी समझ लीजिए अनुच्छेद 352 कहता है युद्ध, आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह के कारण संपूर्ण भारत या इसके किसी हिस्से की सुरक्षा खतरे में हो तो राष्ट्रपति राष्ट्रीय आपात की घोषणा कर सकता है। मूल संविधान में सशस्त्र विद्रोह की जगह आंतरिक अशांति शब्द का उल्लेख था। इसलिए इंदिरा गांधी को सिद्धार्थ रहने आंतरिक अशांति के आधार पर आपात का लगाने की सलाह दी। जब जनता पार्टी की सरकार सत्ता में आई तब 44वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा आंतरिक अशांति को सशस्त्र विद्रोह से रिप्लेस किया गया। राष्ट्रीय आपात की घोषणा पूरे देश या सिर्फ इसके किसी एक भाग पर लागू हो शक्ति है। मिनर्वा मेल 1980 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा की राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा को अदालत में चुनौती दी जा सकती है। यही वजह है की इंदिरा गांधी द्वारा लगाएं गए आपातकाल को कोर्ट में चुनौती नहीं दी जा सके।
वापस इस पर लौटते हैं की सिद्धार्थ राय की सलाह के बाद इंदिरा गांधी तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से मिलने गई उन्होंने बहुत जल्दी ही राष्ट्रपति को राजी कर लिया 25 जून 1975 की रात को राष्ट्रपति द्वारा इमरजेंसी की दस्तावेज पर दस्तक करते ही पूरे देश में आपातकाल लागू हो गया। दिलचस्प बात यह केंद्र ने यह सब कुछ अपने कैबिनेट को बिना बताए ही किया। इस रात दिल्ली के बहादुर शाह जफर मार्ग पर स्थित अखबारों के दफ्तरों की बिजली रात में ही कैट दी गई। इंदिरा नहीं चाहती थी की 25 जून को हुई जीपी की रैली की खबर पूरे देश में फैले। इसलिए अखबारों के दफ्तरों के
बिजली कैट दी गई उसे रात एक तरफ इंदिरा गांधी इमरजेंसी पर मंथन कर रही थी तो दूसरी तरफ उनके बेटे संजय गांधी और ओम मेहता उन लोगों की लिस्ट बना रहे थे जिन्हें गिरफ्तार किया जाना था। आपातकाल के ऐलान के साथ थी सभी नागरिकों के मौलिक अधिकार निलंबित कर दिए गए, अभिव्यक्ति के आजादी तो छीनी गई, लोगों के पास जीवन का अधिकार भी नहीं रह गया। 25 जून की रात से ही देश में विपक्ष के नेताओं की गिरफ्तारियां का दूर शुरू हो गया। जयप्रकाश नारायण, लाल कृष्णा आडवाणी, अटल बिहार वाजपेई, जॉर्ज फर्नांडिस, लाल प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव आदि बड़े नेताओं को जेल में दाल दिया गया। इतनी बड़ी संख्या में लोगों के गिरफ्तारियां हुई की जेल में जगह नहीं बची थी। तहत करीब 1 लाख से ज्यादा लोगों को जेल में डाला गया।
18 जनवरी 1977 को राष्ट्रपति ने लोकसभा भंग कर दी और सरकार ने मार्च में चुनाव का ऐलान किया। सभी राजनैतिक बंधिया को रिहा कर दिया गया और 23 मार्च को 1977 आपातकाल की समाप्ति की घोषणा कर दी गई। इस महीने छठ लोकसभा चुनाव संपन्न हुआ और जनता पार्टी भारी बहुमत से सत्ता में आ गई। इंदिरा गांधी और संजय गांधी चुनाव हार गए। मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने, कांग्रेस को उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब, हरियाणा और दिल्ली में एक भी सीट नहीं मिली। लोकतंत्र का काला अध्याय 21 महीने बाद समाप्त हो चुका था।